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फिर बस्ता संभालें हम

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किताबों के बीच सिसकते बचपन ने शिक्षा की बुनियाद को हिलाकर रख दिया है. एक छोटे बच्चे के लिए 10-12 किताबें रोज स्कूल ले जाना और उन्हें पढ़ना कठिन होता है, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. अब हालात ऐसे हो गए हैं कि भारी बैग के दबाव के कारण बच्चे गर्दन, पीठ दर्द का तो शिकार हो ही रहे हैं, साथ ही बस्ते के बढ़ते अनावश्यक बोझ से बच्चे मानसिक रूप से कुंठित भी हो रहे हैं. जिन बच्चों में कैल्सियम की कमी हैं उनके लिए यह खतरनाक साबित हो रही है.शिक्षा एवं स्मार्ट स्कूलों का दावा करनेवाले प्राइवेट स्कूल, नर्सरी एवं प्राइमरी कक्षाओं में बस्ते के वजन को लेकर जारी नियमों की खुलेआम धज्जियां उड़ाते दिख रहे हैं. मासूमों पर बस्ते का भार कम करने के लिए न तो शिक्षा विभाग किसी तरह की लगाम लगा रहा है न तो सरकार शिकंजा कस रही है.

शिक्षा मंत्रालय (तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय) द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति के 2015 के अनुमान के अनुसार, कोचिंग संस्थानों का वार्षिक राजस्व 24,000 करोड़ रुपये था. एक रिसर्च की मानें तो मौजूदा समय में भारत के कोचिंग उद्योग का बाजार राजस्व 58,088 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है. इस इंडस्ट्री के 2028 तक 1,33,955 करोड़ रुपये तक पहुंच जाने का अनुमान है.शिक्षाविद् और मनोवैज्ञानिक चिंतित हैं. वो इस इंडस्ट्री का अध्ययन करने के लिए बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण की मांग कर रहे हैं, खासकर स्कूल स्तर पर जहां किंडरगार्टन के बच्चे निजी ट्यूशन पर निर्भर हैं.

इतना होना चाहिए बैग का वजन

क्लास   वजन
1-2    1.5 किग्रा.
3-4 2 से 3 किग्रा.
6-7  4 किग्रा.
8-9 4.5 किग्रा.

माता-पिता की उम्मीदों का भार

आजकल के मां-बाप अपने बच्चों से ज्यादा प्रतिस्पर्धी हैं. वह बच्चों को कोचिंग क्लास जाने पर जोर दे रहे हैं क्योंकि वे खुद स्कूल के काम में बच्चों की मदद कर पाने में असमर्थ हैं. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चे अपने माता-पिता की आशाओं और सपनों को ढोने के लिए नहीं बने हैं और न ही उन्हें बनना चाहिए.

कोचिंग कल्चर की महामारी

भारत में कोचिंग उद्योग की मौजूदा बाजार में हिस्सेदारी 58,088 करोड़ रुपये की है. 2028 तक इसके 1,33,995 करोड़ रुपए तक पहुंचने का अनुमान है. महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश, बिहार से लेकर केरल तक, ट्यूटर्स के साथ-साथ, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स और कोचिंग क्लासेस ने डिजिटल दुनिया में अपना जाल फैला लिया है. दो साल की महामारी के बाद, यह उद्योग अब पहले से कहीं ज्यादा बड़ा हो गया है. दरअसल यह शहरी भारत में आगे बढ़ने एक जरूरत बन गई है. नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, 7.1 करोड़ छात्र ट्यूशन में नामांकित हैं.मनोवैज्ञानिक अंतहीन ट्यूशन की दौड़ से उपजे तनाव और खोए हुए बचपन पर लंबे समय तक पड़ने वाले असर का अध्ययन करने की बात कह रहे हैं.

40% स्कूली बच्चों ने अपनाई ट्यूशन

2021 एएसईआर की रिपोर्ट से पता चला कि 25 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में किए गए सर्वेक्षण में पाया कि 40 प्रतिशत स्कूली बच्चों (5-16 आयु वर्ग) ने प्राइवेट ट्यूशन को अपनाया हुआ था. 2018 में यह 30 फीसदी थी. यह प्रवृत्ति केरल को छोड़कर सभी राज्यों में बढ़ी है. प्राइवेट ट्यूशन का विकल्प चुनने वाले अधिकांश परिवार उच्च आय वर्ग से थे.

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